२० मंसिर २०८१, बिहीबार December 5, 2024

साहित्यमार्फत पहिचान खोज्टी स्रस्टा

२४ मंसिर २०७९, शनिबार
साहित्यमार्फत पहिचान खोज्टी स्रस्टा

सागर कुस्मी
धनगढी । “साँस बा टे माटिक् खेलौना जियल बा । समय संगे कुछ कैके जिन्गि चलल बा । जिन्गि बा टे मौटफें निश्चित बा यहाँ, पटा बा सबके डेंह बयालसे रुकल बा ।” इ गजलके शेर हो गजलकार दिपक चौधरी “असीम” के ।

कैलारी गाउँपालिका ३ बसौटी घर रहल दिपक चौधरी अझ्कल कामके डौरानमे भारतमे पस्ना चुहाइटैं अपन घर परिवार जहानके लाग । प्रदेस रहिके हाँठगोर खियैटी रलेसेफेन उहाँ अपन देशके लाग ओटरै मैयाँ बटिन । ओहेमारे उहाँ असिक अपन कलम चलैले बटैं, “अपन भासा अपन पहिचान ओहे खोजटा, जेकरमे अपन भेसभुसामे मैयाँ भरल बा । रंग मन्चके इ डुनियाँमे नाटक भिट्टर हेरो, हमार संस्कृति परम्पराफें यहाँ छुपल बा ।”

७० के दशक हेर्ना हो कलेसे कुछ समय एहोंर थारु जवान लर्का ढेरहस प्रदेसमे अपन जिनगी बिटैटी आइल बटैं । जहाँ रलोपर अपन भासा, साहित्य, संस्कृति ओ पहिचानहे बचाइ पर्नामे बहुत चिन्तनशिल हुइल बटैं । थारु भासा, संस्कृति, समाज परिवर्तन खोज्टी बटैं ।

गजलकार सन्देश दहित अपन गजलके शेर असिक लिख्ठैं, “झालक बडलम डिजेक मोट्री टाँगक जैठ स्कुलम, बिपट म परल झोल्लाइल डफ मन्ड्रा गोहराइटा । उँख्ठट् जाइटा जरबोँटे पुरान गिटबाँस इटिहास, लगाइ बल ठारु ठाँरियन सख्या, झुम्रा गोहराइटा ।”

एक समय रहे जे जहाँ रलेसे फेन थारु भासा साहित्यमे एक मेरके लिखाइ खोब जम्कल रहे । सौकिन ओला सब बिलागैलैं । जे दिलसे लिख्टी गैल ओइनके कलम आउर टिस्लोर हुइटी गैलिन । “घाम ओ पानिसे लरल मनै हुइ किसान हम्रे । जुनि जुनि भर करल मनै हुइ किसान हम्रे । पापी पेट्के लाग बहुट डुख करे पर्ना रहठ, फुलाहस् रोज झरल मनै हुइ किसान हम्रे ।” इ शेर हो गजलकार रिमा चौधरीक्। उहाँ अपन गजलमे समाजके वास्तविक तस्विर उटरले बटैं ।

थारु समुदाय जुग जबानासे खेतीपाती कर्टि आइल समुदाय हो । अपने खेटुवामे मेहनत कैके रमझम कैना, अपन टौर टरिकासे जिए खोज्ठैं । असिन बातसे सम्झटी गजलकार संगत कैलरिया लिख्ठैं, “गाउँमे उब्जाइल टीना बेचक् लाग, गउँहीमे टीना बेंच्ना सहर बनैम । अपन बारी बेंउरा अपन जमिनहे, गोबर मल डारके भरहर बनैम ।”

हरेक बस्ती हरेक गाउँ लिरौसीसे जिनगी जिए खोज्ठैं । बर्खाके समयमे हसुलिया क्षेत्र हुलाकी डग्गरके डख्खिन ओरिक ओ भजनी क्षेत्रके जन्तनके अवस्था अभिन पुराने हालत जिएटैं । किसाननके पिर डेख्के गजलकार मख्खन थारुके इ गजलसे पिर जाने सेल्जाइठ । “अइया डाइ मुनु बचाउ हाली सबके जुबानमे बा । गाउँ बस्ती घर खेटुवा डगर सब डुबानमे बा । खेटुवक धान, कुठ्लिक चाउर पुहाके लैगिल, सालो साल यी पीडा केवल किसानमे बा ।”

डाइबाबा जलम डेठैं । बर्हापहुँरा डेठैं । पर्हालिखा डेठैं । बाँकी रहल भविस्य अपनहि बनाइ परठ । इ बातसे एकदम सचेत हुइटि गजलकार सलिन चौधरी लिख्ठैं, “सक्कुहुन पटा बटिन बाहेर आके कमाइटुँ मै । रातदिन दुःख कैके अपन भविष्य बनाइटुँ मै । कना मनै टे कानै कठै मनके चोट मनमे बा, प्रदेशी मनै औरेक ठाउँमे मनहे मनाइटुँ मै ।”

जबसम लावा सपना नैडेख्बी टबसम ना कौनो चिज सिखे मिलठ ना कौनो अवसर । ओहेमारे गजलकार तिलक डंगौरा असिक चिन्तनशिल हुइल बिल्गैठैं । “हर दिन हर एक लावा समस्यासे जुझटुँ मै । झरफरसे गिर्के झरफरसे हर बार उठ्टुँ मै । प्रदेशमे हुके घर परिवारमे रहल डाइबाबा, लर्का पर्कनसे संगे बैठके रमैना झुकटुँ मै ।”

लावा जवान पुस्टा लोग अइना दिनमे समाज शिक्षित कराइक लाग, सहि सोंच ओ सकारात्मक परिवर्तनके लाग अपन अपन ठाउँसे कलममार्फत इ समाजहे समुन्नत कराइ पर्ना बुद्धिजीवी लोग बटैठैं ।